Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-


90. चिरविदा : वैशाली की नगरवधू

उन्होंने चीनांशुक धारण किया था , जिसके किनारों पर लाल लहरिया टंका था । कण्ठ में उज्ज्वल मोतियों की माला थी जिसकी आभा ने उनकी कम्बुग्रीवा और वक्ष को आलोकित कर रखा था । कपोलों पर लोध्ररेणु से संस्कार किया था और सालक्तक पैरों में कुसुम - स्तवक - ग्रंथित उपानह थे। अंशुकान्त से बाहर निकले हुए उनके अनावृत मृदुल युगल बाहु मृणाल-नाल की शोभा धारण कर रहे थे। प्रवाल के समान अरुणाभ उत्फुल अधरोष्ठों के बीच हीरक - सी आभावाली उज्ज्वल धवल दन्तपंक्ति देखते ही बनती थी । गण्डस्थल की रक्ताभ कान्ति मद्यआपूरित स्फटिकचषक की शोभा को लज्जित कर रही थी । उज्ज्वल उन्नत ललाट पर उन्होंने मनःशिला की जो लाल श्री अंकित की थी , वह स्वर्णदीप में जलती दीपशिखा - सी दिख रही थी । अंसस्थलों में लगा लोध्ररेण उनके माणिक्य - कुण्डलों पर एक धूमिल आवरण - सा डाल रहा था । उनके लोचनों से एक अद्भुत मदधारा प्रवाहित हो रही थी । उनकी सघन -कृष्ण केशराशि पर गूंथे हुए बड़े- बड़े मौक्तिकों की शोभा सुनील आकाश में जगमगाते तारों की छवि धारण कर रही थी ।

प्रासाद के उद्यान में अशोक के बड़े- बड़े वृक्षों की कतार चली गई थी । उनके नवीन लम्बे अनीदार गहरे हरे रंग के पत्तों के बीच खिले लाल - लाल फूल बड़े सुहावने लग रहे थे। उसी वृक्षावली के बीच लताकुञ्ज था । कुञ्ज के चारों ओर माधवी लता फैली हुई थी । उसी लताकुञ्ज में वह तन्मय हो एक चित्र बना रही थीं । उनका कंचुक - बन्धन शिथिल हो गया था । भावावेश से उनका श्वास आवेगित था । नेत्रों की पलकें चित्र -फलक पर स्थिर और मग्न थीं । कोमल , चम्पकवर्णी, पतली उंगलियां कुर्चिका से लाजावर्त और मन शिला की रेखाएं चित्र पर खींच रही थीं । वायु शान्त थी , वातावरण में सौरभ बिखर रहा था । लतागुल्म स्तब्ध थे। वह यत्न से चित्र पर अन्तिम स्पर्श दे रही थीं । सारा चित्र एक वस्त्र - खण्ड से ढंका था । सोम के आने की आहट उन्हें नहीं मिली । वह दबे-पांव उनके पीछे जाकर खड़े हो गए ।

चित्र को पूरा करके उन्होंने उस पर का आवरण उठाया । एक बूंद अश्रु चित्र पर गिर पड़ा । उस दिन वसन्त का वह प्रभात लाल -लाल लावण्य -स्रोत से प्लावित हो अनुराग सागर की तरह तरंगों में डूबता - उतराता दीख रहा था ।

चित्र सोमप्रभ का था ।

सोम ने आगे बढ़कर कांपते स्वर में कहा - “ शील ! ”

वह चौंक उठीं । उन्होंने बड़ी - बड़ी पलकें उठाकर सोम को देखा । लज्जा से उनका मुख झेंप गया । दोनों हाथ निढाल - से होकर नीचे को लटक गए । सोम ने घुटनों के बल

बैठकर राजनन्दिनी के दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर अवरुद्ध कण्ठ से फिर कहा - “ शील

राजकुमारी ने बड़ी- बड़ी भारी पलकें उठाकर सोम को देखा और असंयत भाव से कहा - “ सोम , प्रियदर्शन , तुम आहत हो , बैठ जाओ, बैठ जाओ ! ”

“ तो तुमने मुझे क्षमा कर दिया शील ? यह मैं जानता था । मैं जानता था , तुम मुझे अवश्य क्षमा कर दोगी । परन्तु शील प्रिये , अपने को मैं कभी नहीं क्षमा करूंगा, कभी नहीं। ”

“ वह सब तुम्हें करना पड़ा, सोमभद्र ! ”

“ किन्तु प्रिये , मैंने जिस दिन प्रथम तुम्हें देखा था , अपना हृदय तुम्हें दे दिया था । मैंने प्राणों से भी अधिक तुम्हें प्यार किया। तुम मेरे क्षुद्राशय को नहीं जानतीं । मेरा निश्चय था कि विद्डभ राजकुमार को बन्दीगृह में मरने दिया जाए , कोसल - राजवंश का अन्त हो और अज्ञात -कुलशील सोम कोसलपति बनकर तुम्हें कोसल - पट्टराजमहिषी पद पर अभिषिक्त करे। सब कुछ अनुकूल था , एक भी बाधा नहीं थी । ”

“ मैं जानती हूं, प्रियदर्शन ! पर तुमने वही किया , जो तुम्हें करना योग्य था । किन्तु अब ? ”

“ अब मुझे जाना होगा प्रिये ! ”

“ तो मैं भी तुम्हारे साथ हं , प्रिय ! ”

“ नहीं शील, ऐसा नहीं हो सकता । मुझे जाना होगा और तुम्हें रहना होगा । मैं कोसल का अधिपति न बन सका , किन्तु तुम कोसल की पट्टराजमहिषी रहोगी, यह ध्रुव है । ”

“ मैं , सोम प्रियदर्शन , तुम्हारी चिरकिंकरी पत्नी होने में गर्व अनुभव करूंगी। ”

“ ओह, नहीं, एक अज्ञात - कुलशील नगण्य वंचक की पत्नी महामहिमामयी चम्पा राजनन्दिनी नहीं हो सकतीं। ”

“ किन्तु सोमभद्र, मैं तुम्हारी चिरदासी शील हूं। मैं तुम्हें आप्यायित करूंगी अपनी सेवा से , सान्निध्य से , निष्ठा से और तुम अपना प्रेम - प्रसाद देकर मुझे आपूर्यमाण करना। ”

“ मेरे प्रत्येक रोम- कूप का सम्पूर्ण प्रेम , मेरे शरीर का प्रत्येक रक्तबिंदु, मेरे जीवन का प्रत्येक श्वास आसमाप्ति तुम्हारा ही है शील । पर यह नहीं हो सकता , तुम्हें कोसल की पट्टराजमहिषी बनना होगा ! ”

“ किन्तु मैं तुम्हें प्यार करती हूं सोम , केवल तुम्हें । ”

“ और मैं भी तुम्हें , प्राणाधिक शील ! किन्तु पृथ्वी पर प्यार ही सब -कुछ नहीं है। सोचो तो , यदि प्यार ही की बात होती तो मैं विदुडभ का क्यों उद्धार करता ? क्यों अपने हाथों उसके सिर पर कोसल का राजमुकुट रखकर कोसलेश्वर कहकर अभिवादन करता ? प्रिये, चारुशीले , निष्ठा और कर्तव्य मानव -जीवन का चरम उत्कर्ष है। मैंने उसी को निबाहा । अब तुम मुझे सहारा दो । ”

सोम ने कुमारी के चरण - तल में बैठकर उसके दोनों हाथ अपने नेत्रों से लगा लिए । कुमारी कटे वृक्ष की भांति उनके ऊपर गिर गईं। उनकी आंखों से अश्रुधारा बह चली । बहुत देर तक दोनों निर्वाक् -निश्चल रहे । फिर कुमारी ने उठकर , धीरे - से , जैसे मरता हुआ मनुष्य बोलता है, कहा - “ मैं जानती थी , तुम यही करोगे। सोम , प्रियदर्शन , किन्तु मेरे प्रत्येक रोम में तुम्हारा वास है और आजीवन रहेगा - जीवन के बाद भी , अति चिरन्तन काल तक । ”

“ तुम्हारा कल्याण हो , तुम सुखी हो । कोसल पट्टराजमहिषी शीलचन्दना चन्द्रभद्रे, सुभगे ! ”सोम ने झुककर खड्ग उष्णीष से लगाकर राजसी मर्यादा से कुमारी का अभिवादन किया और कक्ष से बाहर पैर बढ़ाया । कुमारी ने एक पग आगे बढ़ाकर वाष्पावरुद्ध कण्ठ से कहा - “ सोमभद्र, मेरे धूम्रकेतु को लेते जाओ, वह बाहर है। उसे तुम पशु मत समझना और मेरी ही भांति प्यार करना । ”

“ ऐसा ही होगा शील! तुम्हारा यह प्रेमोपहार मेरे जीवन का बहुत बड़ा सहारा होगा। ”

फिर सोम एक क्षण को भी नहीं रुके। लम्बे - लम्बे पैर बढ़ाते हुए प्रासाद के बाहरी प्रांगण में आ खड़े हुए। वहां कुण्डनी और शम्ब उनकी प्रतीक्षा में खड़े थे। उन्होंने धूम्रकेतु पर प्यार की एक थपकी दी , फिर कुण्डनी की ओर देखकर , बिना मुस्कराए और एक शब्द बोले , तीनों प्राणियों ने उसी क्षण वैशाली के राजपथ पर अश्व छोड़ दिए ।

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